लोभ का बंधन
जीवन में प्रगति प्रत्येक मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा है। इससे समाज में प्रतिस्पर्धा का स्वस्थ वातावरण बनता है । जब प्रगति की यह इच्छा स्वाभाविक न रहकर व्यसन बन जाती है तो लोभ की परिभाषा बन जाती है। मनुष्य जब अपनी दृष्टि का संकुचन कर धन, परिवार और सांसारिक बल तक ही सीमित कर लेता है तो उसके जीवन की स्वाभाविकता तिरोहित हो जाती है। सहजता नष्ट हो जाती है। वह लोभ की अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है। लोभ का अर्थ है परमात्मा के न्याय में विश्वास का समाप्त हो जाना । लोभ मनुष्य को गुणों और धर्म से दूर करता है।
परमात्मा जो प्रदान कर रहा है उसी में मनुष्य का विकास निहित है। उसने कृपा करने के क्या मानदंड बनाए हैं, यह वही जान सकता है। वह किसी के भाग्य का लेखा-जोखा कैसे रख रहा है उसे चुनौती नहीं दी जा सकती है। उससे कुछ भी मांगा तो जा सकता है, किंतु उसकी कृपा पाने का मार्ग अपनाकर । वह राजा को रंक और रंक को राजा बना सकता है, किंतु तब जब वह कृपालु होता है । जब मन लोभी हो जाए तो उसे न स्वहित का बोध रहता है, न परहित का । उसका स्वहित है परमात्मा पर विश्वास और उससे प्राप्त होने वाली कृपा में संतुष्ट तथा सहज रहना । अन्य के अधिकारों का अतिक्रमण न करना भी उसका धर्म है, क्योंकि इसी में परहित निहित है।
यदि मनुष्य के अंदर संतोष नहीं है तो उसकी कामनाएं कोई भी सीमा मानने से इन्कार कर देती हैं। उसे अधिकाधिक पाने की धुन लग जाती है, किंतु अपने पात्र का ध्यान नहीं रहता कि उसमें क्या और कितना समा सकता है। लोभजनक प्रयासों से यदि कुछ अर्जित भी हो जाए तो उसका कुपरिणाम ही हाथ आता हैं। भुजबल से बड़े-बड़े साम्राज्य बना लिए गए, किंतु न वे राजा रहे, न साम्राज्य । भक्त कबीर जी ने कोई साम्राज्य नहीं बनाया, किंतु अपनी आत्मिक श्रेष्ठता के कारण वह आज भी पूज्य हैं।
डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह
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